कालांतर बेड़ा की जागीर वैवाहिक संबंधों के तहत मेवाड़ राज्य से मारवाड़ (जोधपुर) राज्य के अधीन हो गई। मारवाड़ राज्य मुगलों के अधीन एक आंशिक स्वतंत्र राज्य था। मुग़लों के पतन के पश्चात् 1710 -1790 तक पूर्ण स्वतंत्र राज्य रहा। 18वीं शताब्दी में मराठों ने पूरे उत्तरभारत में अफगानिस्तान तक अपना प्रभाव जमा दिया। मारवाड के महाराज विजय सिंह को हराकर मराठा सरदार ग्वालियर के महादजी सिंधिया ने कर(चौथ) वसूलना शुरु कर दिया। इससे छुटकारा पाने के लिए सन् 1818 में मारवाड़ के राजा मानसिंह ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया से संधि करके उनकी अधीनता
स्वीकार कर ली। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात् बेड़ा की जागीर मारवाड़ (जोधपुर) राज्य के तहत अंग्रेजी साम्राज्य के अधीन हो गई । इस समय तक लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि और पशुपालन रहा। लोग वर्ण व्यवस्था के अनुसार अपना व्यवसाय करते थे। व्यापार मुख्य रूप से जैन समाज के हाथों में ही रहा। जो अधिकतर आस पास के क्षेत्र तक ही सीमित था। व्यापार एवं साहूकारी(बैंकिंग) का कार्य जैन समाज का प्रमुख व्यवसाय था। कुछ ही व्यापारी कारवों के साथ दूर – दूर के प्रदेशों में जाकर भी व्यापार करते थे। राजाओं और जागीरदारों के मंत्री, कोठारी, मुनीम,कामदार के पदों पर जैन श्रेष्ठिओं को ही नियुक्त किया जाता था।
आवागमन के मुख्य साधन घोड़े, बैलगाड़ी, घोड़ा गाड़ी आदि थे। जोधपुर राज्य रेलवे और बॉम्बे, बड़ोदा, सेंट्रल इंडिया रेलवे ने ईस्वी सन् 1881 में अजमेर से अहमदाबाद वाया मारवाड़ जंक्शन रेलवे
लाइन को शुरू किया । जिस पर मोरी बेड़ा भी एक स्टेशन था। इस तरह व्यापार के नए केंद्र अहमदाबाद,मुम्बई,मद्रास और उनके आसपास के शहर इस क्षेत्र से जुड़ गए । धीरे-धीरे बेड़ा के जैन श्रेष्ठी भी व्यापार के लिए इन नए शहरों की तरफ गए। इन श्रेष्ठिओं की आवक में भी वृद्धि हुई।

इस समय तक धार्मिक एवं व्यवाहरिक शिक्षा के लिए जैन समाज उपाश्रयों में शिक्षकों की नियुक्ति करता था। अन्य समाज के लोग ब्राह्मणों से शिक्षा ग्रहण करते थे। बेड़ा नगर के एक श्रेष्ठी ने अपने घर पर पाठशाला शुरू की । विद्यार्थियों की संख्या बढ़ जाने से उन्होंने पेचके के पास विद्यालय विद्यालय का निर्माण ईस्वी सन् 1927 में करवाया। जो पूरे बाली तहसील का प्रथम विद्यालय था। विक्रम संवत 1997(ईस्वी सन 1940) जेठ वद 6 को भगवान विमलनाथजी जैन गृह मंदिर की प्रतिष्ठा आचार्य क्षमाभद्रसरीश्वरजी ने करवाई। जैन समाज द्वारा आयंबिल भवन एवं कई धर्मशालाओं का भी निर्माण हुआ।
ई सन 1952 में अन्य दो श्रेष्ठिओं ने वर्तमान हॉस्पिटल भवन का निर्माण करवाया। उसके पास में ही कन्या पाठशाला का निर्माण भी उसी समय हुआ। ।
बेड़ा के ठाकुर शिवनाथसिंहजी जोधपुर के महाराज उम्मेदसिंहजी मुख्य सचिव भी रहे।
उनके पुत्र ठाकुर पृथ्वीसिंहजी एक प्रसिद्ध पोलो खिलाड़ी थे। उनकी कमांड में जोधपुर की सेना ने प्रथम विश्वयुद्ध में जॉर्डन, ईजिप्त,गाजा क्षेत्र में बहादुरी से कई कठिन युद्ध जीते। 1947 में देश के आज़ाद होने के बाद जोधपुर के राजा हनवंतसिंहजी ने जोधपुर को एक स्वतंत्र देश बनाने का प्रयत्न किया। मो जिन्ना ने जोधपुर के राजा को पाकिस्तान में विलय का खुला प्रस्ताव दिया था। जिस पर उन्होंने विचार के संकेत भी दिये थे। पर अंत में सरदार वल्लभ भाई पटेल कठोर नीति से 7 अप्रैल 1949 भारत में विलय हो गया।
संभव चौक में मुख्य मंदिर के पास में लाइब्रेरी की जगह पर युगवीर आचार्य श्री वल्लभ सुरीश्वरजी गुरु मंदिर की प्रतिष्ठा आचार्य श्री इन्द्रदिन सुरीश्वरजी ने मार्गशीष शुक्ल 8, 2045, 14/12/1988 को करवायी। नई लाइब्रेरी का निर्माण मुख्य बाजार किया गया। 8 मई 1992 के दिन जैन समाज द्वारा नव निर्मित संभव नाथ उच्च माध्यमिक विद्यालय का उद्घाटन हुआ।

1995 पश्चात कई धर्मशालों,उपाश्रयों, अतिथि भवनों का निर्माण जैन श्रेष्ठिओं के सहयोग से जैन समाज के द्वारा किया गया।
उसी समय दादा पार्श्वनाथ तीर्थ का जीर्णोद्वार का कार्य प्रारम्भ हुआ। जीर्णोद्वार समिति एवं ट्रस्ट मण्डल के अथाह प्रयत्नों से एक अतिभव्य मंदिर का निर्माण हुआ। जिसकी भव्य एवं ऐतिहासिक प्रतिष्ठा 30/4/2019 को आचार्य श्री पद्म सुरिश्वर जी द्वारा सम्पन्न हुई। इस प्रतिष्ठा में बेड़ा जैन समाज के श्रेष्ठिओं ने खुले दिल से धन का सदुपयोग किया। सलाहकार समिति, ट्रस्ट मण्डल, विविध समितिओं और आत्मानन्द जैन सभा बेड़ा के स्वयसेवकों के अथाह प्रयत्नों एवं तालमेल से प्रतिष्ठा का निर्विघ्न आयोजन अत्यंत भव्य एवं यादगार हुआ। बाद में दादा पार्श्वनाथ तीर्थ में धर्मशाला का नवीनीकरण और अन्य कई सुविधाओं का निर्माण हुआ। आज यह तीर्थ अपनी सुंदरता,आयोजन एवं सुविधाओं से आने वाले यात्रियों का मन मोह लेता है।
बेड़ा के जैन श्रेष्ठीओ द्वारा समय – समय पर उपध्यान, ओलिओ, अठ्ठम, संघो आदि धार्मिक अनुष्ठानों एवं जैन समाज के स्नेह सम्मेलनों का आयोजन बेड़ा और दादापार्श्वनाथ होता रहता है।
बेड़ा के इस गरिमामय इतिहास में भविष्य में भी नए पन्ने जुडते जाएंगे इसी कामना के साथ।