राजस्थान में 1- 4 लाख वर्ष पूर्व के मानव निवास के प्रमाण डिडवाना से, 1 लाख- 40 हज़ार पूर्व के लूनी नदी की घाटी से और 5- 10 हजार पूर्व के बागोर, तिलवारा इत्यादि जगह से प्राप्त हुए है| 5000- 3500 वर्ष पूर्व में कालीबंगा (हरप्पन) और मेवाड़ के पचमतरा और बनास नदी के तट पर (अहर-बनास) संस्कृति फली फूली ।
अपने क्षेत्र की नजदीकी अहर बनास संस्कृति, सिंधु घाटी सभ्यता के उत्तार्ध काल के समकालीन थी। इन दोनों सभ्यताओं में व्यापारिक संबंध थे। यह क्षेत्र महाभारत (करीब 5000 वर्ष पूर्व) में वर्णित मत्स्य प्रदेश के दक्षिण में स्थित है।भगवान नेमिनाथजी और भगवान महावीर के मध्य का काल (2400- 3000) वर्ष पूर्व जो महाजनपद काल कहा जाता है। उस काल में यह प्रदेश अलग,अलग समय में कुरु, मत्स्य और सुरसेन महाजनपदों का हिस्सा रहा।
उस काल में भगवान महावीर ने इस क्षेत्र में विचरण किया। उनपर हुए एक उपसर्ग का स्थल वर्तमान का बामनवाडजी तीर्थ था। “नाना,दियाना,नांदिया जीवित महावीर स्वामी विचरिया” का उल्लेख जैन धर्म की पुस्तकों में है। उसके पश्चात यह प्रदेश नन्द वंश और मौर्य वंश का हिस्सा रहा। मौर्य वंश के पतन के बाद ई. दुसरी शताब्दी में विदेशी शकों ने इस क्षेत्र पर अपना कब्जा कर लिया। शक साम्राज्य के पतन के बाद कुछ समय के लिए कुषाण और बाद में ई. तीसरी शताब्दी से पाँचवी शताब्दी तक यह पूरा क्षेत्र गुप्त साम्राज्य का हिस्सा रहा। गुप्त वंश के पतन के बाद विदेशी हूणों ने हिन्दु धर्म अपनाकर छठी शताब्दी के मध्य तक राज किया। पर गुप्त वंश ने हूणों को हराकर एक बार फिर इस क्षेत्र को अपने अधीन कर लिया। छ्ठी शताब्दी के अंत में गुप्त वंश के पतन के बाद कुछ समय तक पूरा प्रदेश छोटे- छोटे राज्यों में विभाजित रहा। छठी शताब्दी के मध्य से आठवीं शताब्दी तक गुर्जरप्रतिहारों ने प्रारम्भ में श्रीमाल वर्तमान में भिनमाल और बाद में कन्नोज को राजधानी बनाकर पूरे प्रदेश को अपने अधिकार में कर लिया। एक समय में उनका शासन बिहार तक विस्तृत हो गया। नवमी शताब्दी में दक्षिण के राष्ट्रकुटों ने इस क्षेत्र पर अधिकार करने के लिए गुर्जर प्रतिहारों पर आक्रमण करने शुरू कर दिये। राष्ट्रकुटों और गुर्जरप्रतिहारों में वर्चस्व के लिए काफी समय तक युद्ध होते रहें। गुर्जर प्रतिहार शासन धीरे, धीरे कमजोर होता गया और पूरा विशाल राज्य छोटे, छोटे राज्यों में बंट गया।
राष्ट्रकूट वंश में अमोघवर्ष प्रथम (800-878) एक बहुत ही प्रतापी सम्राट हुए। वो जैन धर्मावलंबी थे। उनकी तुलना चंद्रगुप्त मौर्य से की जाती हैं। उन्हीं के वंशज और एक राष्ट्रकूट सामंत हरि वर्मा ने ई.सन् 880 में हथुण्डी (रातामहावीर जी बीजापुर) को अपने अधिकार में कर लिया। उस समय बेड़ा समेत आसपास का पुरा क्षेत्र उनके अधिकार में आ गया।
उस समय वहाँ पर तीसरी शताब्दी के अंत में श्रेष्ठी वीरदेव द्वारा निर्मित और आचार्य सिधसेन सुरीश्वरजी द्वारा प्रतिष्ठित भगवान महावीर का वर्तमान मंदिर मौजूद था। इसका उल्लेख पार्श्वनाथ भगवान की परम्परा का इतिहास (पूर्वाध) में भी है। यह मंदिर करीब 1700 वर्ष प्राचीन है।